एक कमरे के एक कोने के
ना जाने किस अँधेरे हिस्से में
अधूरी रौशनी है मेरे पास
एक कागज़ है एक कलम है
ढेर सारी उम्मीदें हैं, सोच है
और अनगिनत अल्फाज़
एक कविता कि सूरत नकाशने के लिए
पर क्या फाएदा
लिखने वाला भी मैं और पढ़ने वाला भी
चार अधूरी कहानियाँ है सुनाने को
चार, कहानी सुनने वाले
नहीं
एक रोज़ कहीं खो जाएंगे ये कागज़
कहीं भूल जाऊँगा अपनी स्याही
किसी को उधार में मिल जाएगी ये कलम
और मैं चल पडूंगा इसी सफर पे आगे कहीं
ये दुनिया है बोलने वालों की
दिखाने वालों की
सोचना पढ़ना समझना ढूँढना
इतना वक्त किसके पास
खुशियाँ भी हैं मुफ्त में
पर उस सच्चाई में
वो दिखावा कहाँ
संजीदगी को महफ़िल कहाँ
और तसल्ली को ठिकाना कहाँ
पर ये कागज़ रहने दो मेरे पास
मुझे नहीं दिखानी
अपनी बुनी हुई लफ़्ज़ों कि चादर
इन्हीं को ओढ़ के सो जाऊँगा रोज़
इसी कि तसल्ली है
कुछ देर सोच सके
कुछ देर महसूस कर सके
कुछ देर समझ सके, और
केसर के डिब्बे में छिपा सके
बचा सके, हमेशा के लिए
थोड़े से शब्द
थोड़ी सी इंसानियत ||
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