Monday 15 October 2012

गुम


कुछ रोज़ मुस्कान थी कहीं
किसी चहरे पर रुकी हुई
हम खूबसूरती के मुलजिम थे
जो कभी हस ना सके
या रो ना सके
हम बेवकूफी के पहरेदार थे
जो खिलखिलाते रहे
ये सोच कर कि शायद वाकई में
सब कुछ तो है, जो होता है
पर ये हमारी ही नासमझी रही होगी
जो हम ना कभी कुछ देख पाए
बस यही मन में ठाने बैठे रहे
कि तकलीफ नहीं तो खुशी सही
पर कहाँ समझ आता है
कि कौन खुश कौन उदास
वक्त कि मजबूरी रही होगी
जो ना कभी हम समझ सके
क्या सही क्या गलत
जब समझने लायक हुए
तो वक्त निकल गया लगाम से
आज तो हम खुश हैं
पर अगर कल न होते इतने
तो शायद आज जादा होते ||


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