कुछ रोज़ मुस्कान थी कहीं
किसी चहरे पर रुकी हुई
हम खूबसूरती के मुलजिम थे
जो कभी हस ना सके
या रो ना सके
हम बेवकूफी के पहरेदार थे
जो खिलखिलाते रहे
ये सोच कर कि शायद वाकई में
सब कुछ तो है, जो होता है
पर ये हमारी ही नासमझी रही होगी
जो हम ना कभी कुछ देख पाए
बस यही मन में ठाने बैठे रहे
कि तकलीफ नहीं तो खुशी सही
पर कहाँ समझ आता है
कि कौन खुश कौन उदास
वक्त कि मजबूरी रही होगी
जो ना कभी हम समझ सके
क्या सही क्या गलत
जब समझने लायक हुए
तो वक्त निकल गया लगाम से
आज तो हम खुश हैं
पर अगर कल न होते इतने
तो शायद आज जादा होते ||
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