Sunday 10 June 2012

Chaos


In this universe seemingly populated by people, all you can find is noise, pollution, haphazard movements, aimless motivations, unknown intentions, speeches that make no sense, tasks that can never be fulfilled because most of us are just not happy doing it. Being an Indian comes with a burden, a burden of expectations. This many times distracts the actual intention of someone, what he could do with his life? Many times it so feels that dreams, where one is successful are the reality and the reality where one is a failure is a nightmare. All that someone could hope is like any other nightmare this one too, would end soon. Perhaps, sooner if one could be strong enough to take decisions. 

Discussion with one of my roommates made me realize how much damage Englishmen have done to us. They have fed us and our minds to be a slave, earlier we were to them now we are to the expectations of anyone who is above us. We no longer take decisions for ourselves, and we are plain coward to be one who does. Nobody takes decisions now, at-least not as soon as protection layers are beyond the question. After a period of time, we simply accept this simple life, where all we can do is complain. Our minds become nothing more than a trash box where we can’t think beyond, we can’t think out of the box. 

And because we can’t think we do without a thought, we talk without a thought, we do not tend to improve and we become rigid according to the reality. Reality with an adverse effect on us makes us someone not ready to accept, not ready to discard and we all collide with each other, we fight unnecessarily and all that remains is chaos, being a part of which we reach nowhere, whole lifetimes are spent in that chaos and there are moments of happiness amongst spans of sadness, while life was meant to be other way round. 

Truth would never become reality, we will accept, wear, show whatever we fancy and in the end amongst a bunch of fools we try to be the one who is coolest. How lonely we are, we can’t sit and talk to ourselves, we need someone, always who would remind us of our greatness, who would tell us that we are the ones who could bring about a change. And I ask why? Have we nothing better to do? Can’t we even feel that we are breathing, we are being alive? In this frenzy we will possibly never ever realize that. All our efforts, lifetimes are spent, not in improving anything sensible but profit, financial status and anything showy, and all we can do is complain, we just don’t improve neither do we intend to, being an Indian, such a lazy race we are, and I blame none, because this chaos, we inherit and it will take a lot of time for us to bring order to it.

Vairagya


वैराग्य
 
विजयगढ़ के महाराज आनंद अपने महल के आँगन से अपने प्रदेश को देख रहे थे | उस गर्मी की दोपहर में पूरा प्रदेश शांत था, बाहर मिट्टी के रास्तो पे ज्यादा चहल पहल भी नहीं थी | शहर से थोड़ी उचाई पर स्थित राजमहल के चौड़े पत्थर की छत से ढके हुए आँगन से महाराज लगभग पूरे प्रदेश की बाहरी गतिविधि की निगरानी कर सकते थे | दोनों पैरों पर आराम दायक मुद्रा में पूरी तरह से स्थिर खड़े महाराज पलक भी नहीं झपका रहे थे | असल में शहर की शान्ति, उनके मस्तिष्क के अंदरूनी उपद्रव को और छेड़ रही थी साथ में सांत्वना भी दे रही थी, शायद सब ठीक हो जाएगा, ऐसा वह अपने आप को झूठी संतुष्टि देने के लिए सोच रहे थे | ऐसी राजनीतिक रूप में संकटपूर्ण परिस्थिति का सामना उन्होंने कभी नहीं किया था | और वह तैयार भी नहीं थे | महाराजों के युग में युद्ध ऐसी परिस्थिति थी, जिससे हर महाराज कमसे कम एक बार अपनी जीवन में अवश्य जूझते थे | परन्तु यदि महाराज को प्रेमपूर्वक पाल कर लाड प्यार से बड़ा किया गया हो तो आगे चल के राजकुमार आधिकारिक कौशल विक्सित कर भी पाएंगे, ये अन्य प्रश्न था | आनंद आज अशांत थे, उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था की वह क्या करें | ऐसे में उन्हें सिर्फ अपने मित्र सेनापति विक्रम से विमर्श करना उचित लगा | सेनापति आनंद के पीछे उसी विशाल आँगन में खड़े उचाई से शहर को महाराज के कंधे के ऊपर से देख पा रहे और गरम हवा उनके चेहरे पे महसूस हो रही थी, वायु उस उचाई पर काफी गतिशील थी | वह महाराज के साथ क्योकि पढ़े, लिखे, खेले और बड़े हुए, वह उनकी दुर्दशा समझ सकते थे, वेह जानते थे महाराज इस परिस्थिति से दूर भागते रहे, आजीवन, अब तक, और अब वह लाचार हैं | राजनैतिक परिस्थितियां पहले भी आई है, और मंत्रालय सिर्फ अपना फायेदा समझता था और उससे दूसरों की सम्पन्नता तो बर्दाश्त न होती, चाहे वो महाराज स्वयं क्यों न हों | बस उनकी रोटी चलती थी, वह इसीलिए चुप रहते थे, वर्ना धोखाघड़ी में उन्हें चुकने में ज़रा भी आपत्ति न थी | इस लगातार शान्ति के बीच की अशांति ने महाराज को बोलने के लिए मजबूर कर ही दिया |
"क्या ये मेरी गलती है?" , ऐसा नहीं था की सेनापति के लिए प्रश्न नया था, इस सवाल का जवाब भी आमतौर पर महाराज बस यु ही दे ही देते थे, "शायद मुझे इस राजगद्दी का उत्तरदायित्व स्वीकार करना ही नहीं चाहिए था" | यूँ तो महाराज के स्वर्ग सिधार चुके पिता अग्रसेन बहुत ही संपन्न साम्राज्य खड़ा कर चुके थे पर उनके जैसी कुटनीतिक और राजनैतिक क्षमता आनंद में न थी, आज उनके प्रदेश को जितनी आवशयकता थी, उतनी तो नहीं ही थी | "अर्थ और राजनीति पढने वाले राजवंशियो की पंक्ति में मेरी कुंडली रचना कर दी गयी, खडगवारी और युध्शास्त्र हमेशा मेरी समझ से परे रहा है, मुझे तो कविता और छंद समझ आते थे, पर कर्मरथ, धर्मपथ का बोझ मुझे पर लाद दिया गया और राजवंश के सम्मान को नयी उचाई पर पहुचाने की शपथ, मेरे लिए एक किसी और स्तर की चुनौती है, जिसका परिणाम फलपूर्वक नहीं होगा | इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी मेरे कंधो पर डाल कर शायद हम सभी से भूलहो गयी हो, और मेरी नज़र में कोई और दोषी नहीं पर मैं, जो खुद को विजयगढ़ का सफल महाराज देखने की बेअकल कल्पना में इस उत्तरदायित्व के अग्नि कुंड में कूद गया |  सेनापति अन्य किसी परिस्तिथि में बोलना पसंद न करते, आखिरकार कितनी गहरी मित्रता क्यों न हो महाराज आनंद पहले महाराज थे, फिर एक मित्र, पर उनकी ऐसी स्थिति ऐसे समय में उनके साम्राज्य के लिए हानिकारक हो सकती थी | मंत्रालय तैयार था, आपस में से किसी को भी चुन कर राजगद्दी पर बिठाने के लिए, वह कह तो रहे ही थे सिर्फ निर्णय लेने वाले को अस्थायी रूप से महाराज के नियंत्रण न ले पाने की स्थिति में उनका स्थान लेने के लिए, पर सब जानते थे, युद्ध की समाप्ति पर, मंत्री राजगद्दी किसी न किसी तरह छीन ही लेंगे और महाराज को राजगद्दी अपनाने के लिए फिर  जूझना होगा | वह उतनी बड़ी आपदा न होगी जितनी बड़ी आपदा राजमहल और महारानी पर आ गिरेगी, शायद ऐसी आपदा जो सामने खड़ी है उससे भी बड़ी है | सेनापति से और शांत नहीं रहा जा रहा था, शायद वह जो कहने वाले थे उससे महाराज के सम्मान को चोट पहुचती पर उन्हें इससे बाहर निकलने का नया रास्ता स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दे रहा था | “महाराज, मेरा इरादा अपमान करना नहीं है, पर मैं ये समझता हू आप इस युद्ध का सफलतापूर्वक अंत नहीं कर पाएंगे, आपका राजगद्दी पे नियंत्रण नहीं है, आप युध्शास्त्र में कमज़ोर है, अगर आप युद्ध के मैदान में जाते है तो मुझे इस बात का भरोसा हो चूका है आप वापस लौट के न आ पाए, पर ये बात राजमहल के बाहर नहीं है और मैं आपको बताना चाहता हू, अगर आप यहाँ रहते हुए राजनीतिक रूप से इस झंझट को सुलझाने का प्रयास करेंगे तो आपका मंत्रालय आपको नोच खाएगा, युद्ध में शत्रु सिर्फ छल और कपट और आपका धन लूटना पहचानता है, आपका सदाचार और नैतिकता सारी धरी रह जाएगी, पर अगर आप हमारे साथ मैदान में उतरते है तो इस बात का आश्वासन मैं देता हूँ की महारानी और राजकुमार पर संकट नहीं आएगा, और जब तक राजकुमार राजगद्दी संभालने लायक नहीं होते किसी मंत्री की राजगद्दी पे नज़र भी नहीं पड़ने नहीं दी जाएगी, अगर हम युद्ध से वापस नहीं भी आते तो मंत्री सिर्फ शिकायत करते रह जाएँगे अपने अपने घरों के अंदर, आपकी जनसँख्या आपके पिता की स्थापित सम्पन्नता को अटल रखेगी, और आपके आदेश पे महारानी को इस प्रदेश का नियंत्रण दे दिया जाएगा, और मेरा मानना है, महारानी राजनीतिक काबिलयत रखती है, आप भी जानते है | जहां तक युद्ध की बात है, शत्रु को छल और कपट से ही हराना होगा, हमारी नैतिकता हमारे काम नहीं आएगी इतनी क्रूरता के सामने” | युद्ध में सेनापति विक्रम ने पीठ पीछे वार से लेकर, शान्ति से चर्चा करने की बैठक के वक्त उनके सेनापति का कपट वध करने से लेकर उनके सिपाही को धन का लालच देकर उनके ही महाराज को भेद्य कर पराजित किया, महाराज आनंद को  सुरक्षा में रखते हुए जब युद्ध जीत जाने का डंका बजाते हुए जब वापस आये, मंत्रालय ने रणनीति का आलोचन किया पर जनसँख्या के लिए तो सिर्फ उनके महाराज ने उनकी सम्पन्नता को संभाले रखा | 
मंत्रालय तो शायद था ही कहने के लिए, कहता रहा, महाराज ने पर ये ज़रूर समझ लिया की राजनीति उनके लिए नहीं, उन्होंने राजकुमार को हर प्रकार का ज्ञान दिलाया, उनको एक सफल महाराज बनाया, पर वह खुद कभी सफल महाराज न बन सके, शायद दूसरों के विचार में वह रहे हो, पर वह जानते थे, की आपदा में वह सिर्फ कविता और कहानिया लिखते रह गए और बेहतर समझ वाले लोगो ने उनके सम्मान को बचाया और उन्ही कविताओं और पंक्तियों के निराशापूर्ण वैराग्य में वह कही खो गए, और कहने वाले कहते रहे, कोसते रहे ||