Tuesday 16 April 2013

गौरव


एक शाम कुछ लिखने बैठे थे,
पर वो तुक बने नहीं,
उतनी मायूसी बची नहीं,
और वो शब्द रहे नहीं,
शायद एक कदम बढ़ गए हम,
वहीँ, उसी रास्ते पे,
जहां लोग सर झुकाए चल पड़ते थे,
बिना कुछ पूछे,
बिना किसी शिकायत के,
मैं भी शायद,
चल दिया वहीँ,
उसी नासमझी में,
ये शौकिया गुरुर था,
या किस्मत को हाँ कर बैठे,
अब लड़ने का जी नहीं करता,
अचानक लड़ाईयाँ छोटी हो गयीं,
अचानक थक के चूर हो जाने की मर्ज़ी नहीं रही,
अचानक सब ठीक लगने लगा,
या ये अचानक हुआ ही नहीं,
अपनी ही बेवकूफी को और दो कदम आगे ले गए,
या मकसद बदल गए,
या जुनूं ख़तम कर बैठे,
या सर्द हो गयी समझ,
अब मैं वो नहीं रहा,
अगर वो रहता भी तो क्या फर्क पड़ता,
कोई फर्क न तब पड़ा,
न अब पड़ेगा,
अब हया खुश्क महसूस होती है,
उस वक़्त ज़माने से रंजिश लिए बैठे थे,
अब अपने आप से,
वो अल्फाज़ वाकई में नहीं रहे,
वो मायूसी वाकई में नहीं बची,
आज पहली बार महसूस हुआ,
शायद मैंने भी शोर अपना लिया ||