Thursday 15 November 2012

अब भी

कुछ रोज़ एक नदी के किनारे 
चंद गुलाब छोड़ जाते थे सैलानी
सफर का पता नहीं रहता
इस उम्मीद में 
शायद अगर कहीं खो गए 
तो दूसरों को पता रहेगा
कि कोई आया था यहीं,
नदी किनारे परिंदे थे
कई सारे
वो याद रखते थे
खोई हुई दुनिया को याद दिलाते थे
कभी कभी राह भी दिखाते थे
नदी किनारे 
अभी भी गुलाब वहीँ हैं
पर आजकल फूलों को भी कौन परखता है
किसी चिड़िया के गाने को सुनने का वक्त कहाँ?
बहुत शोर है नदी से दूर,
अब शायद शोर की ही आदत पड़ गयी,
गाने वाले परिंदे सब उड़ गए,
कोई सुन ने वाला नहीं रहा
कुछ गुलाब अभी भी वहीँ हैं,
कुछ मुरझा गए,
कुछ नए खिल गए
बाकी नदी का क्या,
बहती थी, बहती है
अब भी ||

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