Thursday, 19 March 2015

चाँद खाली मकान

चार गलियों से रोज़ चलकर,
घर देखते हुए आता हूँ मैं,
कई घर हैं उन गलियों में,
छोटे बड़े,
पूरे अधूरे,
कुछ गरीबों के,
कुछ रईसों के,
कुछ गरीबों के बड़े घर,
कुछ रईसों को छोटे घर |
***
तरह तरह के घर मैं देखता हूँ रोज़,
जब अपने कमरे में लौटता हूँ,
उनमे से एक,
कदम थमा देता है मेरे,
मैं एक बार को झाँक लेता हूँ उसमे,
तीन मोटरसाइकिल खड़ी रहती हैं उसमे,
एक बड़ा मैदान है,
एक छोटा सा घर है,
एक इंसान नहीं देखा मैंने उसमे,
बस मैदान,
तीन मोटरसाइकिल,
और एक छोटा सा घर |
***
आज दोपहर में जब मैं लौट रहा था,
तो मोटरसाइकिल नहीं दिखी एक भी,
कहीं गए होंगे शायद,
पर घर सिर्फ मैदान,
और मकान लग रहा था,
फिर भी खूबसूरत,
पर सिर्फ मकान |
***
तरह तरह के घर देखे मैंने,
छोटे, बड़े,
पूरे, अधूरे,
पर जब लोग थे,
तब घर थे,
वरना सिर्फ एक छत थी,
अभी सिर्फ एक छत है |
***
किराए के लिए मकान हैं,
नेकी से मिली नौकरी,
देने वाले की मेहेरबानी न हो,
तो सड़क के भी लायक नहीं,
रोज़ सोचता हूँ थोडा और करूँगा,
कुछ अपने बनाऊंगा,
पर थकान इतनी है,
क्या खाऊंगा,
क्या घर जाऊंगा,
अपना क्या ख़ाक बनाऊंगा |
***
मर्ज़ी भी शांत नहीं बैठती,
खाली घर देख के डर सा बैठ जाता है,
एक दिन सब चले जाएँगे,
बचेंगे तो मैदान और दीवारें |
***
मैं कौन हूँ,
कहाँ से आया,
कहाँ जाऊंगा,
छतें हैं,
दीवारें हैं,
खिड़कियाँ हैं,
इंसान नहीं |
***
शरीर है,
हड्डियाँ हैं,
साँसे हैं,
धड़कन है,
और नौकरी भी |
~
SaलिL

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