Monday, 21 April 2014

बस इतना ही...

न जाने किस मोड़ पे,
आज मेरी सांस रुकी है,
सीने में जो शोर है,
सुन नहीं सका,
न जाने कहाँ,
मेरी अपनी आवाज़ छुपी है,
बोलता हूँ तो नज़रें नहीं पढ़ती मेरी,
तकलीफ न जाने कहाँ मेरी आस झुकी है,
उठा दो मुझे, 
आज न जाने कहाँ,
मेरी सांस रुकी है |

गर्दन में दर्द सा है,
चार रोज़ से सुबह नहीं हुई,
आज न जाने कहाँ,
ये अजीब सी रात रुकी है,
पूरी हो गयी गिनती मेरी,
बरस बरस बरस बीत गए,
आज न जाने कहाँ,
ये बात उठी है |

सुबह के लिए,
कब तक तकेंगे राहें,
आज आंसुओं से भी,
यही बात कही है,
नहीं हैं मेरे पास और कहानियां,
और मौके,
और बातें करने को,
जाने दो मुझे,
इस बार के लिए,
मेरी गलती सही,
अब इस नफ्ज़ में,
और जान नहीं है ||

~

SaलिL

Original poem. But some words and a bit of its scheme inspired/stolen/ripped from this song. Homage to Gulzar saab.

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