Thursday, 10 April 2014

अब तो बस...

पलकें भारी हैं,
हज़ारों पत्थरों के बोझ सा भारीपन है, 
सर पे,
पूरे बदन के सारे हिस्से,
चीख रहें हैं दर्द से,
आवाज़ नहीं निकलती,
तो सिर्फ खुद की ज़बान से,
नींद सी अधूरी, 
धुंध सी मैली है,
सच्चाई मेरी,
और दो पल चैन की नींद नहीं,
इन आँखों में,
आँखें मूंदता हूँ मैं, 
पर सर मेरा खाबों की बरसात से फटने लगता है,
आँखें और धड़कन,
दोनों जलने लगती हैं,
अब तो जो सांस रुके,
तो आराम मिले,
राहें ख़तम सी हैं,
घर बचे नहीं,
कही नहीं है कोई जिसे कुछ कहे,
कुछ समझे,
कुछ भी,
कुछ नहीं बचा अब,
न वजह,
न मर्ज़ी,
नहीं खिचता अब,
ये तार सहारे का,
और बोझ बनने का इरादा नहीं है,
किसी पे,
और किसी पे लदना न पड़े, 
इस दुनिया में, 
साँसों का मतलब,
बस इतने में,
क्यों पैदा हुए इस दुनिया में, 
न होते,
न फर्क पड़ता इस दुनिया में,
वैसे भी न पड़ा,
पर बेहतर होता,
न होते,
न इतनी तकलीफ होती किसी को,
जिस जिस को,
हुई आजतक,
मेरी वजह से,
इस यथार्थ का कलंक है मुझपे,
सबसे बड़ा नालायक इस युग का, 
सिर्फ मैं, 
और सिर्फ मैं,
आज यही ख़याल हैं मन में,
अब तो बस,
सांस रुके, 
तो आराम मिले |

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