Monday, 22 October 2012

शब्द


एक कमरे के एक कोने के
ना जाने किस अँधेरे हिस्से में 
अधूरी रौशनी है मेरे पास
एक कागज़ है एक कलम है
ढेर सारी उम्मीदें हैं, सोच है 
और अनगिनत अल्फाज़ 
एक कविता कि सूरत नकाशने के लिए
पर क्या फाएदा
लिखने वाला भी मैं और पढ़ने वाला भी
चार अधूरी कहानियाँ है सुनाने को
चार, कहानी सुनने वाले नहीं 
एक रोज़ कहीं खो जाएंगे ये कागज़ 
कहीं भूल जाऊँगा अपनी स्याही 
किसी को उधार में मिल जाएगी ये कलम 
और मैं चल पडूंगा इसी सफर पे आगे कहीं 
ये दुनिया है बोलने वालों की 
दिखाने वालों की
सोचना पढ़ना समझना ढूँढना 
इतना वक्त किसके पास 
खुशियाँ भी हैं मुफ्त में
पर उस सच्चाई में 
वो दिखावा कहाँ 
संजीदगी को महफ़िल कहाँ 
और तसल्ली को ठिकाना कहाँ 
पर ये कागज़ रहने दो मेरे पास
मुझे नहीं दिखानी
अपनी बुनी हुई लफ़्ज़ों कि चादर
इन्हीं को ओढ़ के सो जाऊँगा रोज़
इसी कि तसल्ली है 
कुछ देर सोच सके 
कुछ देर महसूस कर सके 
कुछ देर समझ सके, और
केसर के डिब्बे में छिपा सके 
बचा सके, हमेशा के लिए
थोड़े से शब्द
थोड़ी सी इंसानियत ||

Thursday, 18 October 2012

बारिश

रोज़ बरसता है यहाँ पे
आसमां सफेद हो जाता है 
माहौल नीला हो जाता है
मौसम खुश्क हो जाता है
नीचे सड़क पे 
नम हो जाती है ज़मीन 
सब शांत सा रहता है 
लोग घरों में चले जाते हैं 
सब खिड़की से बाहर देखते हैं 
टप टप टप टप टप टप
बरसता रहता है 
एक बार जब भी 
रुक भर गयी बरसात
फिर वही दौड़ शुरू
बेकार की बातें 
और फ़िज़ूल की बर्बादी 
काश बरसता रहता रोज़ कुछ देर के लिए 
कुछ देर घर बैठ जाते लोग
कुछ देर खिड़की से बाहर देखते लोग
कुछ देर ठण्ड महसूस करते
पर ऐसा होता थोड़ी है
बरसात भी मौसम है
आज बारिश है
तो कल या तो सर्दी होगी 
या गर्मी
या तो पेड़ों से पत्ते झड जाएंगे
नहीं तो रंग बिरंगी बसंत आएगी
पर अभी नीचे सड़क नम है
सब घर पे ही हैं
खिड़की पे खुश्की मासूम खुशियाँ मना रही है
टप टप टप टप टप टप
बाहर बारिश हो रही है ||



Monday, 15 October 2012

फिर मिलेंगे

चल फिर कभी कहीं और

फिर मिलेंगे किसी रोज़

बैठ कर मीठे नीम्बू शरबत में

शेहद घुलते

और ठंडी बर्फ पिघलते देखेंगे

ढेर सारी गप लगाएंगे

आज दो पल का दुःख बांटते हैं

फिर न जाने कब मौका मिले

आज तो कुछ मुसीबत से जूझते रहे

कुछ देर भागते रहे मुसीबत से दूर

कल शायद कुछ नया हो

क्या पता फिर कब मिलेंगे

दो पल की खुशियाँ बाटेंगे

चल फिर कभी कहीं और

फिर मिलेंगे किसी रोज़ ||

गुम


कुछ रोज़ मुस्कान थी कहीं
किसी चहरे पर रुकी हुई
हम खूबसूरती के मुलजिम थे
जो कभी हस ना सके
या रो ना सके
हम बेवकूफी के पहरेदार थे
जो खिलखिलाते रहे
ये सोच कर कि शायद वाकई में
सब कुछ तो है, जो होता है
पर ये हमारी ही नासमझी रही होगी
जो हम ना कभी कुछ देख पाए
बस यही मन में ठाने बैठे रहे
कि तकलीफ नहीं तो खुशी सही
पर कहाँ समझ आता है
कि कौन खुश कौन उदास
वक्त कि मजबूरी रही होगी
जो ना कभी हम समझ सके
क्या सही क्या गलत
जब समझने लायक हुए
तो वक्त निकल गया लगाम से
आज तो हम खुश हैं
पर अगर कल न होते इतने
तो शायद आज जादा होते ||