Sunday, 1 July 2012

क्या फर्क रहा


उन शीशे के टुकडो में
तराजू में
आदतों में
अजीब शिकायतों में
मतलब ढूंढते रहे हम
किस्मत को कोसते रहे हम  
आपस में लड़ते रहे हम
इंसान होने का बोझ
लाद लाद कर
झगड़ते रहे हम
खुशियो के मौके
ढूंढते रहे हम
मन बवंडर में उलझा रहा
तो मुस्कान होने पर भी
क्यों खुश न हो सके हम
जब इच्छा ही न रही
तो क्यों खुद को तकलीफ देते रहे हम
दुनिया की उम्मीदों को
तसल्ली देना
अपना धर्म क्यों बना बैठे हम
इसी आवेश में
जहां खुशी से उदासी और उदासी से खुशी
सींचने लगे हम
जहां ज़िम्मेदारी और मजबूरी में
कोई फर्क न रहा
जहाँ सद्भावना और मुसीबत में
कोई फर्क न रहा
वहाँ
जिंदगी जीने और काटने में
क्या फर्क रहा || 

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