भटकी हुई भीड़ में
शेहेरो में गलियों में
लोगो में
दुनिया में
कभी हम
बड़ों का हाथ थामे
खड़े रहेते थे
अब न तो वो हाथ है
न वो समझदारी
न ही दिशाएं
बस भीड़ है
लोग हैं
दुनिया है
और शोर है
तब एक डर सा था
उम्मीदों को तोड़ने का
अब डर सा है
सपने टूटने का
इस दुनिया में
जहाँ सिर्फ शोर है
इस शोर में
इन लोगो में
इस भीड़ में
एक डर सा है
न जाने
किस रस्ते पे
किस मोड़ पे
किन उम्मीदों के मेले में
किन उपदेशो के आडम्बर में
समझ नहीं आता
कहाँ खो गए हम ||
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