Monday 27 October 2014

आखिरी

मैं गंद की उपजाई,
मुझे गंद नसीब,
मेरी सांस से पिघलती दीवारे हैं,
यूँ पिघले गोश्त सी कडवी मेरी आवाजें हैं |

इस सीने में धड़कती रूह नहीं,
आसुओं से पिघलती आबरू है,
कोई दुनिया नहीं,
कोई आवाज़ नहीं,
भूख से बिलखती आरज़ू है |

नहीं मिले वो घरो के आँगन,
जो अपने ही हाथों हमने जला डाले थे,
सारे पाप मेरे थे,
और कीमत भी मैंने ही चुकाई थी |

किसी दिन मूंदी आँखों के साए में,
जिस गंद से निकला था मैं,
उसी में मिल जाऊँगा,
आज तक अपनी साँसों की बू यूँ खली नहीं थी,

आज किस्मत भी चिल्ला उठी दबाने के लिए ||

No comments:

Post a Comment