Sunday, 14 September 2014

खो गए...

ढूंढते हुए,
रोज़ यूँ कभी,
अपनी आवाजें, यूँ भूल जाता हूँ मैं.

कल, मिलेंगे हम कहीं,
रोज़, सुबह से यूँ ही,
भटके हुए,
खाबों के रूहों के साए में,
हम कहीं, भूल न जाएं,
कहाँ से,
आए थे हम.

चल, एक नयी चादर खरीद लें,
आजकल ठंड में,
यूँ घूमना,
भटकना,
जला देगा बदन.

कल कहीं,
वो बारिश से फिर से तो,
क्या पता,
सर ढकने को छत न मिले.

आज से घर भी कहीं दूर है,
कोई,
पता भी नहीं है.

अरे रोज़ यूँ,
रूह की तलाश में,
न जाने कहाँ पहुंचे.
फिर कभी,
मिलेंगे कहीं और,
जहां थोड़ी और,
आरज़ू,
साँसों से गले लगाएगी सपने.

~

SaलिL

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