Tuesday, 4 February 2014

रोज़ कुछ...

कुछ रोज़ सपने नहीं आते,
आँखें यूँ ही जलती रहती है,
तुक बनाते रह जाते हैं,
लफ्ज़ बातें नहीं बना पाते,
आँखें जलती रहती हैं सिर्फ,
काश कोई समझता,
जिस दरिया को तैरना पड़ता है रोज़ रोज़ |

पेड़ पौधे देखता हूँ मैं
उनकी आज़ादी से जलता हूँ मैं,
क्या वो भी मुझे आजाद देखते हैं?
पता नहीं,
कई बार इस हया का मकसद नहीं मिलता,
मकसद नहीं मिलता तो हिम्मत नहीं आती,
हिम्मत नहीं आती तो हथियार गिरा देते हैं,
उम्मीदें छोड़ बैठते हैं |

चलो आज एक सपना देखें,
की कुछ अच्छा होगा हमारे साथ,
कोई नया गाना सुनने को मिलेगा,
कोई नयी बात करेंगे,
कोई नया आदमी मिलेगा,
कोई नयी मोहब्बत होगी,
कोई नया मकसद होगा |

काश सपनो को कागज़ के पंछियों की तरह उड़ा सकते,
रोज़ सुबह उम्मीदों को अम्बर में,
मखमल के पंख लगा के उड़ा देते,
सपनो को उड़ते देख कुछ तसल्ली होती,
कहानियों के पूरे होने का डर न होता,
नयी कहानियों की उम्मीदें होती,
नए सपनो को पंछी बना के उड़ा देते,
रोज़ सुबह |

कौन गनीमत करे अब,
प्यास तो रोज़ लगती है,
तकलीफ भी रोज़ होती है,
रोज़ होनी है,
यहाँ क्या,
वहाँ क्या,
तकलीफ तो रोज़ होनी है,
कब तक रोते रहेंगे,
अब तो कोई जागता भी नहीं संग,
रोने की कर्कश की भी आदत लग गयी सबको,
सो जाते हैं सभी,
आवाज़ों को अनसुना करके,
अब तो रोना भी बेकार हो गया |


सारे तार तसल्ली के,
हरते हरते कसते कसते ,
अपने हाथों टूट गए,
चैन मिले अब किस्मत से,
कोई आराम मिले कोई दुआ लगे,
अब तो कोशिशों के फ़रिश्ते रूठ गए,
न जाने किस मिट्टी के इंसान थे हम,
जो सर्द हवा के हल्के झोंके क्या लगे,
हम तो अपने आप टूट गए ||

~

SaलिL

बेकार की बातें

बातें कुछ ख़ास है नहीं,
करने को,
शब्द हैं, 
बहुत,
पर होश नहीं,
जहां साँसे हैं,
वो राह दिखा दो,
लोहे से जोर निकाल कर,
सीने में भर लूँगा,
आसमान की दूरी होगी,
पैदल चल दूंगा,
जहां साँसे हैं,
राह दिखा दो,
साँसे हैं ही नहीं,
सब ढोंग है ढोंग,
साँसें ढूंढते ढूंढते,
साँसे दब जाएंगी,
कोसते रह जाएँगे,
पर चार साँसे नहीं मिलेंगी,
दुसरे की साँसे जितनी हैं,
बची खुची,
वो भी सोक ले जाएँगे,
शब्द हैं,
पर होश नहीं,
जान है,
पर मुराद नहीं,
अरे गिन लो साँसें,
चंद पल बाकी हैं,
सुधार लो ज़िन्दगी,
मत सुनो किसी की,
बस करो,
और माफ़ करो,
थोड़ी सी समझ बची है,
उतनी अक़ल सीने दो,
चंद साँसे और हैं,
थोड़ी रहम और करो,
मुझे जीने दो ||

~

SaलिL