Thursday, 30 May 2013

रोक

कभी कभी चिल्लाने का मन करता है,
जोर जोर से,
पर मन मसोस के रह जाते हैं,
इंसानियत से नफरत घटती ही नहीं,
रोज़ नयी वजह मिल जाती है,
अपने आप से नफरत करने की,
दुनिया पैर पे कुल्हाड़ी मारती है,
हम कुल्हाड़ी पे पैर,
तंग आ चुके हैं,
खुद का माथा फोड़ फोड़ के,
क्यूँ इंसान बनके पैदा हुए,
रोज़ इसी तकलीफ को,
यूँ ही निगल जाते हैं,
जैसे बारिश के पानी को,
रुखी गर्मी निगल जाती है,
अब वो दिन दूर नहीं जब अपनी आँखें,
असली मुसीबत वाले दिन बंद कर लेंगे,
क्यूंकि मुसीबत से भागने से पहले,
नयी मुसीबत को गले बाँध चुके होते हैं हम,
इंसान क्यूँ सिर्फ अपनी ही ज़िन्दगी से खुश नहीं,
क्यूँ इतनी मजबूरियां की दुसरे को बर्दाश्त करना पड़ता है रोज़?
किस नाम पे ये समाज बने,
और क्यूँ ये रिवाज बने?
रोज़ नयी तकलीफ आती है,
जब नहीं आती है,
तो आपसी तकलीफें पैदा हो जाती है,
मगर हम लड़ना नहीं चाहते,
हम मजबूर हैं अपनी रईसी से,
जो है नहीं,
पर सोचने के दाएरे के बहार नहीं,
इसलिए मजबूरी में भी सच्चाई को परखते नहीं,
दुनिया के लिए काम करने को तैयार हैं,
पर खुद के लिए रहम महफूज़ नहीं,
मैं मुकाबले का काफिर,
मुझे खुशिओं को तलाश नहीं,
तसल्ली के जुलूस में,
मुझे आराम के डेरे मंज़ूर नहीं,
सिर्फ इतनी गुजारिश थी,
कल अगर मजबूरी की लड़ाई में,
सैकड़ों मुसीबतें आती,
तो मजबूरी में हाथ ढूँढने वाले,
यूँ ही कदम न खींच लेते,
पर कदम खिंच गए उन रईसों के,
कभी तकलीफ उनकी समझ ही न आई,
जिसके लिए हम ज़माने से रंजिश लिए थे,
पर उनकी तकलीफों में,
हमने बिना समझे,
बिना पूछे हाथ बढाए,
हम इंसान हैं,
पैदाइशी डरपोक,
और बेवकूफ,
हम न खुद को सुधार सके,
न किसी और को,
इसी बर्बादी के संग,
हम खुद बर्बाद हुए,
और शायद होते रहेंगे ||


Tuesday, 28 May 2013

चंद पल सो लेते हैं...

आजकल यूँ ही बस,
अजीब से होश की कमी मेहसूस होती रहती है,
साफ़ दिखना थोडा कम हो गया है,
मायूसी की तो आदत थी,
हमेशा से,
होश गँवारी की तो उम्मीद नहीं थी,
काफी थका देने वाली आदतें हैं हमारी, 
पर आजकल आवाजों से डर भी लगने लगा है,
लोग चलते हैं,
आते हैं,
जाते हैं,
कोई आवाज़ इंसान की सुनाई नहीं देती,
पता नहीं कोई शिकायत भी नहीं करता,
शायद तकलीफें सुलझती नहीं शिकायतों से,
इसलिए सब चुप हो गए हैं,
शायद यही ठीक हर हिसाब से,
पर कहीं बहुत देर,
बहुत पहले तो नहीं हो गयी?
पता नहीं,
मतलब ढूँढने का,
कोई मतलब नहीं,
चंद पल सो लेते हैं,
चाँद को ढूंढते ढूंढते,
रात बीत जाएगी, 
क्या पता सुबह कुछ अच्छा ले आये,
पर कहाँ लाती है,
सुबह तो बस मज़ाक है,
असली इंतज़ार तो रात का है,
कब घर पहुंचे,
और कब सो गए, 
बस उन दो पलों का इंतेज़ार रहता है,
जब कुछ देर सो लेते, 
आजकल सो कर उठते हैं,
तो भी थकान रहती है,
हो गया जो होना था,
थमना तो नहीं चाहते थे, 
पर मजबूरी हो गयी शायद,
शायद कई सारी चीज़ें और हैं,
जिनपे मेरा ध्यान नहीं जाता,
पर सपने कुछ जादा बो दिए,
उम्मीदों के बगीचों में,
अब उगने लगे हैं,
नाज़ुक से फूल,
उन बेलों में,
पर अब उनको भी सीचने का मन नहीं करता,
बहुत थकान है, 
चंद पल सो लेते हैं, 
कुछ खो देंगे सो कर,
ऐसा सिखाया है हमें,
पर अब नुकसान के भी मायने बदल गए,
होगा तो देखा जाएगा,
वरना झेला जाएगा,
कुछ खो देंगे तो क्या फर्क पड़ेगा,
कुछ खोने के लिए,
उतना कुछ बचा भी नहीं,
चंद पल सो लेते हैं, 
वरना चाँद को ढूंढते रहेंगे,
रात यूँ ही गुज़र जाएगी,
और सुबह फिर थकान से जूझते रह जाएँगे ||

~

SaलिL