कभी कभी चिल्लाने का मन करता है,
जोर जोर से,
पर मन मसोस के रह जाते हैं,
इंसानियत से नफरत घटती ही नहीं,
रोज़ नयी वजह मिल जाती है,
अपने आप से नफरत करने की,
दुनिया पैर पे कुल्हाड़ी मारती है,
हम कुल्हाड़ी पे पैर,
तंग आ चुके हैं,
खुद का माथा फोड़ फोड़ के,
क्यूँ इंसान बनके पैदा हुए,
रोज़ इसी तकलीफ को,
यूँ ही निगल जाते हैं,
जैसे बारिश के पानी को,
रुखी गर्मी निगल जाती है,
अब वो दिन दूर नहीं जब अपनी आँखें,
असली मुसीबत वाले दिन बंद कर लेंगे,
क्यूंकि मुसीबत से भागने से पहले,
नयी मुसीबत को गले बाँध चुके होते हैं हम,
इंसान क्यूँ सिर्फ अपनी ही ज़िन्दगी से खुश नहीं,
क्यूँ इतनी मजबूरियां की दुसरे को बर्दाश्त करना पड़ता है रोज़?
किस नाम पे ये समाज बने,
और क्यूँ ये रिवाज बने?
रोज़ नयी तकलीफ आती है,
जब नहीं आती है,
तो आपसी तकलीफें पैदा हो जाती है,
मगर हम लड़ना नहीं चाहते,
हम मजबूर हैं अपनी रईसी से,
जो है नहीं,
पर सोचने के दाएरे के बहार नहीं,
इसलिए मजबूरी में भी सच्चाई को परखते नहीं,
दुनिया के लिए काम करने को तैयार हैं,
पर खुद के लिए रहम महफूज़ नहीं,
मैं मुकाबले का काफिर,
मुझे खुशिओं को तलाश नहीं,
तसल्ली के जुलूस में,
मुझे आराम के डेरे मंज़ूर नहीं,
सिर्फ इतनी गुजारिश थी,
कल अगर मजबूरी की लड़ाई में,
सैकड़ों मुसीबतें आती,
तो मजबूरी में हाथ ढूँढने वाले,
यूँ ही कदम न खींच लेते,
पर कदम खिंच गए उन रईसों के,
कभी तकलीफ उनकी समझ ही न आई,
जिसके लिए हम ज़माने से रंजिश लिए थे,
पर उनकी तकलीफों में,
हमने बिना समझे,
बिना पूछे हाथ बढाए,
हम इंसान हैं,
पैदाइशी डरपोक,
और बेवकूफ,
हम न खुद को सुधार सके,
न किसी और को,
इसी बर्बादी के संग,
हम खुद बर्बाद हुए,
और शायद होते रहेंगे ||
जोर जोर से,
पर मन मसोस के रह जाते हैं,
इंसानियत से नफरत घटती ही नहीं,
रोज़ नयी वजह मिल जाती है,
अपने आप से नफरत करने की,
दुनिया पैर पे कुल्हाड़ी मारती है,
हम कुल्हाड़ी पे पैर,
तंग आ चुके हैं,
खुद का माथा फोड़ फोड़ के,
क्यूँ इंसान बनके पैदा हुए,
रोज़ इसी तकलीफ को,
यूँ ही निगल जाते हैं,
जैसे बारिश के पानी को,
रुखी गर्मी निगल जाती है,
अब वो दिन दूर नहीं जब अपनी आँखें,
असली मुसीबत वाले दिन बंद कर लेंगे,
क्यूंकि मुसीबत से भागने से पहले,
नयी मुसीबत को गले बाँध चुके होते हैं हम,
इंसान क्यूँ सिर्फ अपनी ही ज़िन्दगी से खुश नहीं,
क्यूँ इतनी मजबूरियां की दुसरे को बर्दाश्त करना पड़ता है रोज़?
किस नाम पे ये समाज बने,
और क्यूँ ये रिवाज बने?
रोज़ नयी तकलीफ आती है,
जब नहीं आती है,
तो आपसी तकलीफें पैदा हो जाती है,
मगर हम लड़ना नहीं चाहते,
हम मजबूर हैं अपनी रईसी से,
जो है नहीं,
पर सोचने के दाएरे के बहार नहीं,
इसलिए मजबूरी में भी सच्चाई को परखते नहीं,
दुनिया के लिए काम करने को तैयार हैं,
पर खुद के लिए रहम महफूज़ नहीं,
मैं मुकाबले का काफिर,
मुझे खुशिओं को तलाश नहीं,
तसल्ली के जुलूस में,
मुझे आराम के डेरे मंज़ूर नहीं,
सिर्फ इतनी गुजारिश थी,
कल अगर मजबूरी की लड़ाई में,
सैकड़ों मुसीबतें आती,
तो मजबूरी में हाथ ढूँढने वाले,
यूँ ही कदम न खींच लेते,
पर कदम खिंच गए उन रईसों के,
कभी तकलीफ उनकी समझ ही न आई,
जिसके लिए हम ज़माने से रंजिश लिए थे,
पर उनकी तकलीफों में,
हमने बिना समझे,
बिना पूछे हाथ बढाए,
हम इंसान हैं,
पैदाइशी डरपोक,
और बेवकूफ,
हम न खुद को सुधार सके,
न किसी और को,
इसी बर्बादी के संग,
हम खुद बर्बाद हुए,
और शायद होते रहेंगे ||