Monday, 16 June 2014

तू मेरी मजबूरी है

रात दोपहरी में,
सोचे सोचे भूले हैं,
हम अपना नाम,
यूँ ही, बोले बोले भूले हैं,
हम सबका काम |

रोज़ सोने के पहले,
बातें भरती,
बहकी बहकी शाम,
मेरी आँखों की,
रौशनी भुलाती यूँ,
सोने सोने सपने दिखाती यूँ,
तू मेरी मजबूरी है |

तेरे कजरी की डिबिया से,
अपने ही नैनो में लिखा तेरा नाम,
चन्दा की सूरत से,
मिलाते मिलाते,
हमने रखा था,
अपने ही सपनो का नाम |

रोज़ सोने के पहले,
यादें सारी खोई थी हमने कहीं,
रोज़ सोचे सोचे,
हम भी खोए,
यादें तेरी न भूले और रोये,
तू मेरी मजबूरी है ||

~

SaलिL

Friday, 6 June 2014

अब और नहीं...

आज साँसे दबोच रही हैं मुझे,
मेरी कमजोरियां, मेरी तकलीफें,
मेरी बेबसी, और,
मेरी आवाज़,
सब चारों तरफ से कह रहे है मुझे,
जाने दो, 
दूर हो जाओ,
एक बार, और हमेशा के लिए |

हमको सबने ढोया,
बदले में हमने उनको सिर्फ तकलीफें दी,
अब वही बातें मुझे कोंच रहीं हैं |

ये साँसे उनको नसीब,
जिनको साँसों की खुशबू की समझ,
और आँखों की रौशनी नसीब,
हम अंधों को सिर्फ अपवाद,
और भीख में भलाई नसीब,
हम इंसानियत में मिली भलाई को भी धुत्कारते,
फटकारते रहते उन्हें,
जिन्होंने हमें ढोया,
उन्होंने मर्जी से परे ढोया,
हमें लाख गालियाँ दीं,
पर फिर भी ढोया,
और एक दिन,
इन टांगों को किसी छोर,
किसी मंजिल पे छोड़ गए |

हम अंधे,
न मंजिल पहचान पा रहे हैं,
न किनारा,
बस नापते जा रहे हैं,
मन ही मन कोसते जा रहें हैं,
खुद को, 
और उन ढोने वालों को,
न ढोते बिलकुल तो बेहतर होता,
कहीं न कहीं टकराते,
लडखडाते,
किसी अपने बनाये समुन्दर में डूब जाते,
बेहतर तो ये होता, 
की पैदा ही न होते, 
ढोने वालों को कुछ कम ढोना पड़ता,
इस रूह को कुछ कम गालियाँ सुन नी पड़ती |

अब यूँ इस किनारे पे चलते चलते,
थोड़ी थोड़ी आदत हो गयी है,
यूँ ही खपते रहने की,
पर कंधा कमज़ोर ही रह गया,
टांगें भी खींच लेती हैं खुद का वज़न,
और कंधा भी सह लेता है जज़बातों का रोष,
पर कंधा कमज़ोर ही रह गया,
और टाँगे चरमराने लगीं हैं,
मन के किसी कोने में,
उन ढोने वाले कंधों की,
अभी भी चार गालियाँ बसी हैं,
बस मुझे अब और,
उन ढोने वाले कंधो की और गालियाँ सुनने का मन नहीं है |

चलते जाने की आदत सी हो गयी है,
यूँ ही खपते जाने की आदत सी हो गयी है,
कुछ फर्क महसूस नहीं होता साँसों के रुक जाने का,
वरना कब का इन टांगो को,
हमेशा के लिए एक खटिया दिला देता ||
~
SaलिL